उत्तरकाशी- पौराणिक वाद्य यंत्र धीरे-2 विलुप्ति की कगार पर,इनके संरक्षण और संवर्धन के लिए भूतपूर्व सैनिक कल्याण समिति सैनिक मेले के माध्यम से प्रतिवर्ष प्रयासरत - PiyushTimes.com | Uttarkashi News

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Friday, October 29, 2021

उत्तरकाशी- पौराणिक वाद्य यंत्र धीरे-2 विलुप्ति की कगार पर,इनके संरक्षण और संवर्धन के लिए भूतपूर्व सैनिक कल्याण समिति सैनिक मेले के माध्यम से प्रतिवर्ष प्रयासरत

 


उत्तरकाशी- पौराणिक वाद्य यंत्र धीरे-2 विलुप्ति की कगार पर,इनके संरक्षण और संवर्धन के लिए भूतपूर्व सैनिक कल्याण समिति सैनिक मेले के माध्यम से प्रतिवर्ष प्रयासरत




उत्तरकाशी।। आज हमारे पौराणिक वाद्य यंत्र ढोल ,मसक, रणसिंगां आदि विलुप्ति की कगार पर है। इनको बजाने वाले बजगियों  का कहना है कि आज लोग पश्चिमी संस्कृति  की चकाचौंध के पीछे भाग रहे हैं और अपनी पौराणिक संस्कृति को छोड़ रहे है। जिसके कारण हमारी पौराणिक संस्कृति जिसमें हमारे पौराणिक वाद्य यंत्र भी आते हैं। धीरे-2 विलुप्त हो रहे है।आज आवश्यकता  है इनको जीवित रखने की। ये जीवित रहेंगे तो हमारी पौराणिक संस्कृति भी जीवित रहेगी। वही उत्तरकाशी में पूर्व सैनिक कल्याण समिति द्वारा सैनिक मेले में प्रतिवर्ष ढोल सागर प्रतियोगिता का आयोजन किया जाता है ताकि यह संस्कृति जीवित रहे।वहीं सैनिक कल्याण समिति के वरिष्ठ पाधिकारी मेजर जमनाल का  कहना है कि पूर्व में ढोल सागर प्रतियोगिता में पूरे जनपद से 2-3 टीम ही आती थी लेकिन इस वर्ष पूरे जनपद से छः टीमें प्रतियोगिता में आई है।




 वहीं 1983 में भारत के पूर्व राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह  के द्वारा ढोल विधा में पुरस्कृत ढोल विधा के ज्ञाता उत्तम दास कहते हैं। कि आज हमारे वाद्य यंत्र,  विलुप्त हो रहे है मैं लगातार लंबे समय से  अपनी इस पौराणिक संस्कृति को बचाने के लिए  प्रयास कर रहा हूं।वहीं उत्तम दास कहते है कि ढोल विधा में असंख्या  ताल है।  ज्योतिषाचार्य भी कहते हैं कि 33 करोड़ देवताओं के  ताल छंद, तर्क, वितर्क ढोल विधा में अलंकृत है मेरे दादाजी ने ढोल में एक बार बागांबरी ताल बजाया था तो ताल बजाने पर बाघ आ गया था। इतना ही नहीं आज  हमारी पुरानी संस्कृति धीरे धीरे विलुप्त हो रही है जिसको संवर्धन और संरक्षण करने की आवश्यकता है सरकार को पौराणिक वाद्य यंत्रों के संवर्धन और संरक्षण के लिए कार्य करना चाहिए।





वही पौराणिक  वाद्य यंत्रों के बाजगी कहते हैं कि हमारी रोजी-रोटी पुरातन समय से इन्हीं वाद्य यंत्रों पर चल रही है। आज जब पाश्चात्य संस्कृति के कारण वाद्य यंत्र विलुप्त हो रहे हैं तो अब  हमारे सामने रोजी-रोटी का भी संकट खड़ा हो गया है हमारे बच्चे भी इन पौराणिक वाद्य यंत्रों को नहीं बजाते हैं।  बच्चों की रुचि भी पौराणिक वाद्य यंत्रों में नहीं रही। इतना ही नहीं है इन वाद्य यंत्रों को बजाने वाले बजगियों का कहना है कि जब से शिव की उत्पत्ति हुई तब से ही ढोल दमाऊ की उत्पत्ति  हुई है हम लोग राज्य और केंद्र सरकार से मांग करते है कि जनपद स्तर ब्लॉक और ग्राम स्तर पर पौराणिक वाद्य यंत्रों की शिक्षा सीखने  के लिए सरकार को स्कूल की ब्यवस्था करनी चाहिए  ताकि हमारी यह पौराणिक संस्कृति जीवित रहे।


हेमकान्त नौटियाल

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