उत्तरकाशी-फूलदेई त्यौहार मनाने के पीछे क्या है मान्यता,आगामी 8 दिनों तक मनाया जाएगा फूलदेई पर्व
उत्तरकाशी।।फूलदेई भारत के उत्तराखण्ड राज्य का एक स्थानीय त्यौहार है। जो चैत्र माह के आगमन पर मनाया जाता है। सम्पूर्ण उत्तराखंड में इस चैत्र महीने के प्रारम्भ होते ही अनेक पुष्प खिल जाते हैं, जिनमें फ्यूंली, लाई, ग्वीर्याल, किनगोड़, हिसर, बुराँस आदि प्रमुख हैं । चैत्र संक्रांति से छोटे-छोटे बच्चे हाथों में कैंणी(बारीक बांस की कविलास) उसमें पुष्प रखकर छोटे-2 बच्चे इन पुष्पों को लोगों के घरों के दरवाजे,मंदिरों के बाहर रखते है। आज जनपद मुख्यालय में छोटे बच्चों के द्वारा पुशो एकत्रित किये गए।उसके बाद विश्व प्रसिद्ध काशी विश्वनाथ मंदिर में बच्चों के द्वारा पुशो चढ़ाए गए। लोगों के घरों के दरवाजे के बाहर पुष्पों को रखा गया ताकि सभी के घरों में कुशलता और स्वस्थता रहे।उत्तरकाशी जिला मुख्यालय सहित जनपद के ग्रामीण क्षेत्रों में फूलदेई त्यौहार आज से 8 दिनों तक मनाया जाएगा।
फूलदेई त्यौहार मनाने के पीछे की मान्यता है। विश्व प्रसिद्ध काशी विश्वनाथ मन्दिर के महंत अजय पुरी का कहना है। कि शिव कैलाश पर्वत में पुराणों में वर्णित है कि शिव शीत काल में तपस्या में लीन थे ऋतू परिवर्तन के कई बर्ष बीत गए लेकिन भगवान शिव की तपस्या नहीं टूटी । माँ पार्वती ही नहीं बल्कि नंदी शिव गण व संसार में कई वर्ष शिव के तपस्या में होने से बेमौसमी हो गये। आखिर माँ पार्वती ने युक्ति निकाली. कविलास में सर्वप्रथम फ्योली के पीले फूल खिलने के कारण सभी शिव गणों को पीताम्बरी जामा पहनाकर उन्हें अबोध बच्चों का स्वरुप दे दिया। फिर सभी से कहा कि वह देवक्यारियों से ऐसे पुष्प चुन लायें जिनकी खुशबू पूरे कैलाश को महकाए। सभी ने अनुसरण किया और पुष्प सर्वप्रथम शिव के तंद्रालीन मुद्रा को अर्पित किये गए जिसे फुलदेई कहा गया। साथ में सभी एक सुर में आदिदेव महादेव से उनकी तपस्या में बाधा डालने के लिए क्षमा मांगते हुए कहने लगे- फुलदेई क्षमा देई, भर भंकार तेरे द्वार आये महाराज शिव की तपस्या टूटी बच्चों को देखकर उनका गुस्सा शांत हुआ और वे प्रसन्न मन इस त्यौहार में शामिल हुए।
मान्यता है कि इसी समय से पहाडो में फुलदेई पर्व बड़े धूमधाम से मनाया जाने लगा जिसे आज भी अबोध बच्चे ही मनाते हैं और इसका समापन बूढे-बुजुर्ग करते हैं। फूलदेई त्यौहार से ही हिन्दू शक संवत शुरू हुआ फिर भी हम इस पर्व को बेहद हलके में लेते हैं। जहाँ से श्रृष्टि ने अपना श्रृंगार करना शुरू किया जहाँ से श्रृष्टि ने हमें कोमलता सिखाई जिस बसंत की अगुवाई में कोमल हाथों ने हर बर्ष पूरी धरा में विदमान आवासों की देहरियों में पुष्प वर्षा की उसी धरा के हम शिक्षित जनमानस यह कब समझ पायेंगे कि यह अबोध देवतुल्य बचपन ही हमें जीने का मूल मंत्र दे गया फूल देई।
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